'ऐ मेरे सर कभी कातिल के न आगे झुकना। ये इरादा हो तो फिर तन से जुदा हो जाना : अफसर बिस्वानी
मशहूर शायर खुर्शीद अफसर बिस्वानी की बरसी पर सभी लोगों ने खूब किया याद
वहाजुद्दीन ग़ौरी
बिसवां (सीतापुर) गंगा जमुनी तहज़ीब के अलमबरदार मअरूफ शायर सैय्यद खुर्शीद अफसर बिसवानी को जिगर वेलफेयर एण्ड डेवलेपमेन्ट सोसाइटी (रजि0) ने उनकी बरसी पर खि़राजे अक़दीत पेश करते हुये उनकी रूह की मगफिरत के लिये दुआयें व ईसाल सवाब का खुसूसी एहतिमाम किया गया, जिसमे मुख्य रूप से सिराज अहमद ने कहा कि अफसर बिसवानी को इस दौर मे खास तौर से याद किया जा रहा है क्योंकि इस वक़्त शायरों एवं कवियों , साहित्यकारों , पत्रकारों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं मे गंगा जमुनी तहज़ीब का नज़रिया कम नज़र आ रहा है। अफसर बिसवानी को याद करने वालों मे पदमकान्त प्रभात शर्मा, अरूणेश मिश्र, आराध्य शुक्ल, आनंन्द खत्री, संदीप सरस, महेश चन्द्र मेहरोत्रा, सलाहुद्दीन अंसारी, अज़हर ख़ैराबादी, आफताब अख्तर बिसवानी, डा0 सईदुल हसन, कफील बिसवानी, शमीम क़ौसर सिद्दीक़ी, नय्यर शकेब, इकबाल बिसवानी, गुलशन खैराबादी, हाजी अब्दुल अतीक खां, हाजी शब्बीर खां, मुफ्ती ख़बीर नदवी, अफजल लहरपुरी सहित सैकडों शायरों, साहित्यकारों, चिकित्सकों एवं अधिवक्ताओं ने भी याद किया।
हिंदी और उर्दू अदब के मशहूर अन्तर्राष्ट्रीय शायर स्व० सैय्यद खुर्शीद अफसर बिस्वानी हिंदी- उर्दू साहित्य के लिए एक मिसाल थे। १६ मार्च सन् १९४० को बाबा विश्वनाथ एवं शैखुल औलिया हजरत गुलजार शाह की बिसवां नगरी में जन्मे अफसर बिस्वानी ने जीवन पर्यंन्त साहित्य की सेवा करते हुए बिसवां नगरी का देश में ही नहीं वरन् विदेशों में भी नाम रौशन किया। उन्होंने २१ वर्ष की उम्र से ही साहित्य लेखन का कार्य प्रारम्भ किया । उन्होंने १९६१ में कानपुर से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र 'इस्कतबाल' और 'हम लोग' में लेखन कार्य का शुभारम्भ किया। यहीं पर उन्होंने उर्दू की किताब 'उभरते फनकार' व 'नेहरू की आवाज' तथा 'जन्नत के नजारे' और 'सरे शाम' का लेखन कार्य किया । १९६२ में इनका काव्य संग्रह 'नक्शे जुनू' तथा गीतों का संग्रह 'गीत नगर' बज्मे उर्दू कानपुर से प्रकाशित हुआ। १९६४ में सायं दैनिक समाचार पत्र 'कौमी सियासत' व 'दैनिक आदर्श' कानपुर में लेखन कार्य किया। मक्तब ए दीन व अदब लखनऊ के अन्तर्गत 'करामाते गुलजार' व 'गुलजारे सुखन' में कार्य किया। इसके अलावा दर्जनों अन्य ग्रंथों की रचनाएं व पत्रों के लेखन का कार्य किया ।'मैं आबसार नहीं जो बुलंदियों से गिरुँ, वह सब्जा हूँ जो जमीं पे सर उठाता है।' सैय्यद खुर्शीद अफसर बिस्वानी का यह शेर खुद्दारी की झलक लिए हुए दुनियाए अदब में खुर्शीद की तरह रोशन रहेगा और खुर्शीद अफसर बिस्वानी के नाम को रोशन करता रहेगा। उन्होंने अपनी शायरी से कौमी एकता के तराने गाये। मोहब्बत और भाईचारे का पैगाम दिया जिससे जब तक दुनिया रहेगी तब तक उनका नाम अदब की दुनिया में एहतराम से लिया जाएगा। उन्हें साहित्य लेखन के लिए दर्जनों अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार भी मिले जिसमें बज्मे उर्दू कानपुर द्वारा ८ जनवरी १९६३ में 'सितार ग़ज़ल एवार्ड', १९७८ में 'उर्दू अदब एवार्ड', १९८१ में ऑल इण्डिया हिन्दी उर्दू संगम लखनऊ की ओर से 'कौमी अदब एवार्ड' तथा ऑल इण्डिया शफीक मेमोरियल सोसाइटी जौनपुर द्वारा 'शफीक जौनपुरी गजल एवार्ड', १९९३ में 'असरा गजल एवार्ड', १९९५ में राष्ट्रीय एकता परिषद उत्तर प्रदेश द्वारा 'राष्ट्रीय एकता साहित्य एवार्ड' , १९९६-९७ में उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी का साहित्य सेवा पर अखिल भारतीय पुरस्कार, १९९८ में 'जकी हसन अनीस मेमोरियल एवार्ड', 'साहिर लुधियानवी गजल एवार्ड', 'इम्तियाज मीर व नवाए मीर एवार्ड', 'अजय सहगल एवार्ड' व 'भारत एक्सलैन्सी एवार्ड' सहित अन्य दर्जनों एवार्डों से नवाजे गए स्वर्गीय खुर्शीद अफसर बिस्वानी उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ, उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी लखनऊ, राष्ट्रीय एकीकरण परिषद उत्तर प्रदेश एवं खाद्य और आपूर्ति उत्तर प्रदेश लखनऊ के पूर्णकालिक सदस्य भी रहे।राष्ट्रीय भाषाई समिति उत्तर प्रदेश के संस्थापक/ मंत्री व उ० प्र० मुत्तहदा मुगज लखनऊ के महामंत्री भी रहे। इस अवसर पर अजहर खैराबादी ने कहा- 'उस जिस्म को छुऊँ तो चमक जायें उंगलियां । वह जिस्म है कि रेशमी किरनों की शाल है ।।' शायर डॉ० तनवीर इकबाल बिस्वानी ने उन्हें याद करते हुए कहा कि आपकी शायरी बड़े अनुभव और विवेक से परिपूर्ण थी। ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर उन्होंने कलम न उठाया हो।
उनकी पकड़ समाज में होने वाले खतरों पर बहुत थी।उन्होंने समाज को आगाह करते हुए कहा था कि-' हम अपने बाग के सब फूल चुनकर बाँट देते हैं । वो कैसे हैं जो इन फूलों में खंजर बाँट देते हैं ।।' कौमी एकता का शायर खुर्शीद अफसर बिस्वानी हमेशा हालातों व मुश्किलों से लड़ने का संदेश आम जनता को देते रहे। भारतीय समाज के वह सचेतक थे। उनकी शायरी में भारतीय सभ्यता और इन्सानियत की तस्वीर झलकती है। उनके जज्बातों का अंदाज उनकी इस शायरी से लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि - ' हम भटकते रहे बेकार ही शहरों शहरों । था हथेली की लकीरों में मुकद्दर अपना ।।' खुर्शीद अफसर बिस्वानी ने मोहब्बत के पैगाम को आम करते हुए कहा कि- 'ऐ मेरे सर कभी कातिल के न आगे झुकना । ये इरादा हो तो फिर तन से जुदा हो जाना ।।
' आप का कलाम सभी धर्मों को जोड़ने वाला था । वे उर्दू दुनिया के उन बड़े शहरों में थे जिन्होंने मरते दम तक कौमी एकता और वतन परस्ती का पाठ पढ़ाया और कहा कि - 'जाने किस संग की तकदीर में हम लिखे हैं । रास्ता देख रहे हैं कई पत्थर अपना ।।
' ऐसे लोकप्रिय हर दिल अजीज शायर स्व० खुर्शीद अफसर बिस्वानी पर बिसवां ही नहीं वरन् पूरे जनपद को नाज रहेगा। इस तरह जब हम श्री बिस्वानी के इतिहास पर नजर डालते हैं!
तो संक्षेप में पता चलता है की ख़ुर्शीद अफ़सर बिस्वानी मुशायरों के लोकप्रिय शायर स्वर्गीय बिसवानी के पिता का नाम सय्यद आशिक़ अली था जो नौकरी के सिलसिले में कानपूर में निवास करते थे,इसलिए अफ़सर का आरम्भिक ज़माना भी वहीँ गुज़रा.
अपने पिता के साथ जिगर बिस्वानी और मौलाना हस्रत मोहानी की महफ़िलों में शरीक होते थे.उसके असर से ऱफ्ता ऱफ्ता शाइ’री भी करने लगे और मुशायरों में शरीक होनेलगे.
शाइ’री के साथ नस्र भी लिखी. ‘सालेह अदब के मुहर्रिक-ए- आज़म’, ‘इंतेखाब-ए-कलाम जिगर बिस्वानी’ उनकी नस्र की किताबें हैं. शाइरी का संग्रह ‘दोपहर’ के नाम से प्रकाशित हुआ। मरहूम अफसर बिसवानी हम लोगों से हमेशा के लिये 17 जून 2001 मेे जुदा हो गये।